ऊधो अखना पखना जलते।

ऊधो अखना पखना जलते।
वन पांखी की नुची लोथ पर वहशी बिंब मचलते।।


लाल लाल अंगारे सुलगें
दीर्घ अंगीठी दहकें
कोरस गांय कबीले नाचें
मद डगमग पग बहकें
सीख कवाब भोज का मीनू कला कुशल कर तलते।।


पत्थर की बुनियादों पर ये
लोहे की सन्तानें
शहर जगमगे मनु के मन का
दर्द न बिल्कुल जानें
आबादी के सुरसा जंगल सब कुछ चले निगलते।।


हानि लाभ पर निर्भर रिश्ते
सांसों के बेपारी
क्रूर व्यवस्था के जबड़ों में
जीवन पान सुपारी
घर आंगन मरघट के रूपक ऐसे मूल्य बदलते।।


-----