करुणा और क्रोध के बड़े रचनाकार

छंद और गीत रचना को लेकर हिंदी में गहरा अनुत्साह है। लगभग उपेक्षा भाव। संभवतः इसका एक कारण गीत रचयिताओं को दूसरी पंक्ति में बलात् रखने की वह कुचेष्टा है जिसका आधार अज्ञान और अधकचरी आधुनिकता है। अपरिपक्क मानसिकता, यांत्रिक प्रगतिशीलता और अवैज्ञानिक विचारधारा ने जीवन, कर्म और आनंद के आदि स्रोत गीत को नासमझी में अपने ही घर से बेघर कर दिया-

तुलसी सूर कबीरा मीरा कौन खेत की मूली
आयातित दर्पण ही देखें द्दग में सरसों फूली

आयातीत नकली दर्पण में हमारे सारे अक्स गड्डमुड्ड हो गये हैं। छायाएं धुँधली और दृष्टि धुंआसी हो चली है। संपूर्ण चित्र की परिकल्पना तो दूर, सत्य का प्रकट हिस्सा जो ठीक आँखों के सामने है, वह भी पकड़ में नहीं आता। सत्य नहीं, सत्याभास भी नहीं । आत्म नहीं, आत्म का प्रसार भी नहीं। हवा-मिट्टी मं घुलमिल गये अपने पुरखों से कोई संवाद नहीं। केवल अपरिचय; भयानक अपरिचय अपने अतीत से, वर्तमान से और आगत से भी। सौभाग्य की बात है कि यह अपरिचय अल्पसंख्यक शिक्षित भद्रलोक के बीच ही व्याप्त है। कवि और कविता के बीच, हृदय और विचार के बीच सिंधु की तरह कविता प्रेमी सामान्य जनता फैली हुई है। सामान्य जन का यह अटूट और विकल्पहीन प्रेम ही काव्य की शाक्ति और ज्ञान का प्रकाश है।

जायसी ने लिखा है :

सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोहि पन्थ दीन्ह उजियारा।
लेसा हिये प्रेम कर दिया। उठी जोति भा निरमय हिया।।

मानव-प्रेम के प्रकाश में ही – जिसकी जननी करुणा है- हिया निरमल हो सकता है। और निर्मल हृदय से ही गीत निःसृत हो सकते है; अन्यथा काव्य कौशल होगा, छंद होगा, तुक-मिलाप होगा, लय भी होगी लेकिन गीत नहीं होगा। मूर्ति होगी किन्तु प्राण विलुप्त होगा।

प्राणहीन रचनाओं से आज शब्द-संसार अटा पड़ा है। अन्य विधाओं के साथ गीत-कला भी संकट में है। संकट कम और अच्छा लिखने का नहीं बल्कि बहुत ज्यादा और खराब लिखने का है। सौदागरों की भाषा में कहूं तो थोक उत्पादन हो रहा है। बिकाऊ मालों में कवि भी विक्रय के लिए तत्पर खड़ा है। चूँकि बिकना और बेचना ही अभीष्ट है तो साहित्य की परम्परा का ज्ञान गौण और कला की सार्थकता, उपोयगिता और औचित्य का सवाल हाशिये पर चला जाता है-

ऊधो रंच न मन आनंदा।
धिक ऐसी सांसों का जीवन जिसमें ताल न छंदा
नस्ल कमल की गुम होती है सर मे कीचड़ गंदा।
व्यर्थ हुए गुरुदेव निराला सार्थक गुलशन नंदा।

व्यर्थ और सार्थक के बीच चुनाव सहज-संभव नहीं; और फिर पुरानी संस्कृति के जीवित तत्वों का समय सापेक्ष अनुकूलन और नव- निर्मित तो और भी जटिल कार्य है। इनके लिए जो उपकरण चाहिए, वे हैं-चैतन्य विवेक, परंपरा और इतिहास का वैज्ञानिक बोध, रचनात्मक ऊर्जा, आदिम जीवन-रस, से आपूरित जीवन, दृढ़ संकल्प शक्ति और कौशल।

इनमें से किसी एक की भी अनुपस्थिति निश्चय ही अनिष्टकारी है। और जब हर तरफ अनिष्ट ही घटित हो रहा हो, हर चीज डूब रही हो तब तिनका भर प्रयास भी प्राणरक्षक है; अनमोल है।

इसी अनमोल प्रयास का सुपरिणाम है ये पद । रचना और आलोचना दोनों स्तरों पर निखालिस स्वर्ण, लेकिन चुनौतीपूर्ण । अंधकार और अशिव का नाश करने वाले पद : परंपरा के सार से उर्जस्वित और अपने समय के दर्द से करुणार्द्र, उदास और नाराज पद । करुणा और क्रोध का गहन संश्लेष इन पदों की दुर्लभ विशेषता है। ऊधो कहने मात्र से सूरदास स्मृतियों में सजीव हो उठते हैं। एक पूरा कालखण्ड हिलोरे लेने लगता है। मानव जीवन के दुख-दर्द, हर्ण-विषाद, स्वीकार-प्रतिकार की रेखाएं अक्षांशों और देशांशों को पार करती हुई रक्त में घुलने लगती है। दिक-काल की सीमाएं तिरोहित होती है। कविता जागती है और पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष तक फैल जाते हैं। अंधेरा कवि को ग्रसता है, प्यास करेजा कूटती है; अभंग लाठी राज में जंगल के कानून के बीच लाज का मोती पानी-पानी होता है, लेकिन यह औढरदानी कवि का ही साहस है कि गहन अंधकारा में रहते हुये भी वह प्रकाश को आँखों से ओझल नहीं होने देता आस्था की प्रबल धारा उसके हृदय में प्रवाहित होती है और वह सीधे भविष्य की आँखों में देखता हुआ उद्घोष करता है-

ऊधो टूटेगे तटबंध।
इतने बादर इतना पानी अर्न्यामी अंध ।।

इस अन्तर्यामी अंध से श्री आनंदी सहाय शुक्ल जूझते है; शोक-विह्लल और क्षुब्ध होते हैं। उनका क्रोध मंगलकारी है। निस्संदेह वे करुणा और क्रोध के बड़े रचनाकार हैं।

0विजय गुप्त
संपादक ‘साम्य’
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